शनिवार, २७ एप्रिल, २०१९

वरूथिनी एकादशी की कथा varuthini ekadashi


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वरूथिनी एकादशी की कथा

varuthini ekadashi katha (hindi)



वरूथिनी एकादशी



 वरूथिनी एकादशी की कथा पद्मपूराण मे आती है। जब धर्मराज यूधिष्ठीरने भगवान श्री कृष्णसे एकादशी व्रतोँ का महात्म्य ,विधी और इन व्रतों को करनेसे मिलनेवाले पूण्य के बारेमे जानने की बिनतिपूर्वक प्रार्थना की।तब भगवान कृष्ण ने एकादशी व्रतोंका  महात्म्य बताया।जिसमेसे वैशाख के कृष्णपक्ष की एकादशी वरूथिनी के नाम से प्रसिद्ध है। यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करने वाली है। वरूथिनी के व्रत से सदा सौख्य का लाभ तथा पाप की हानि होती है। यह सबको भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली एकादशी है।
          व्रती को चाहिए कि वह व्रत रखने से एक दिन पूर्व हविष्यान्न का एक बार भोजन करे। इस व्रत में कुछ वस्तुओं का पूर्णतया निषेध है, अत: इनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। व्रत रहने वाले के लिए उस दिन पान खाना, दातून करना, परनिन्दा, क्रोध करना, असत्य बोलना वर्जित है। इस दिन जुआ और निद्रा का भी त्याग करें। इस व्रत में तेलयुक्त भोजन नहीं करना चाहिए। रात्रि में भगवान का नाम स्मरण करते हुए जागरण करें और द्वादशी को माँस, कांस्यादि का परित्याग करके व्रत का पालन करे।

  कहानी
  प्राचीन काल में नर्मदा के तट पर मांधाता राजा का राज्य था। एक दिन जब वह जंगल में तपस्या कर रहा था, तभी एक जंगली भालू आया और राजा का पैर चबाने लगा। राजा पूर्ववत अपनी तपस्या में लीन रहा। कुछ देर बाद पैर चबाते-चबाते भालू राजा को घसीटकर पास के जंगल में ले गया। राजा बहुत घबराया, मगर धर्म अनुकूल उसने क्रोध और हिंसा न करके भगवान विष्णुसे प्रार्थना की, करुण भाव से भगवान विष्णु को पुकारा। उसकी पुकार सुनकर भक्तवत्सल भगवान श्री विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने चक्र से भालू को मार डाला। राजा का पैर भालू पहले ही खा चुका था। इससे राजा बहुत ही शोकाकुल हुआ। उसे दुखी देखकर भगवान विष्णु बोले " हे वत्स! शोक मत करो। वरुथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरे वराह अवतार की पूजा करो। उसके प्रभाव से तूम पुन: सुदृढ़ अंगों वाले हो जाओगे। इस भालू ने तुम्हें जो काटा है, यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था।" भगवान की आज्ञा मान राजा ने श्रद्धापूर्वक इस व्रत को किया। इसके प्रभाव से वह शीघ्र ही पुन:  संपूर्ण अंगों वाला हो गया।

      ऐसी मान्यता है कि इस एकादशी का फल सभी एकादशियों से बढ़कर है। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि अन्न दान और कन्या दान का महत्त्व हर दान से ज़्यादा है और वरुथिनी एकादशी का व्रत रखने वाले को इन दोनों के योग के बराबर फल प्राप्त होता है। इस दिन जो पूर्ण उपवास रखनेसे दस हज़ार वर्षों की तपस्या के बराबर फल प्राप्त होता है। उसके सारे पाप धुल जाते हैं। जीवन सुख-सौभाग्य से भर जाता है। मनुष्य को भौतिक सुख तो प्राप्त होते ही हैं, मृत्यु के बाद वह मोक्ष को भी प्राप्त हो जाता है

       इस प्रकार एकादशी का व्रत किया जाता है। इस एकादशी की रात्रि में जागरण करके भगवान मधुसूदन का पूजन करने से व्यक्ति सब पापों से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है। मानव को इस पतितपावनीएकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस व्रत के माहात्म्य को पढने अथवा सुनने से भी पुण्य प्राप्त होता है। वरूथिनीएकादशी के अनुष्ठान से मनुष्य सब पापों से मुक्ति पाकर वैकुण्ठ में प्रतिष्ठित होता है। जो लोग एकादशी का व्रत करने में असमर्थ हों, वे इस तिथि में अन्न का सेवन कदापि न करें। वरूथिनी एकादशी महाप्रभु वल्लभाचार्यकी भी जयंती-तिथि है। पुष्टिमार्गीयवैष्णवों के लिये यह दिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वे इस तिथि में श्रीवल्लभाचार्यका जन्मोत्सव मनाते हैं।

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सोमवार, ८ एप्रिल, २०१९

विक्रम- बेताल कहानी :प्रतिष्ठा हिन राजपुत्र



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शनिवार, ६ एप्रिल, २०१९

हनुमान जी की पत्नी सूवर्चला देवी की कथा





     मैरावनने भी अपने मित्र रावनके कार्य को करने की कसम ली।वह राम लक्ष्मण को बन्दी बनाकर पाताल ले जाकर कालिमाता को बलि देने वाला था।
      मैरावन तन्त्र ,मन्त्र, माया इ.विद्या में निपुण था।उसने अपनी तन्त्र विद्या एवं अन्य मायावी करतूतों से वानर सेनामेसे चुपचाप राम लक्ष्मण दोनों को बेहोश करके चुपचाप ही  उन्हें अपने राज्य पाताल ले गया।फिर उसने उनको वहां बन्दी बनाया।
           इधर जब वानर सेना में राम लक्ष्मण के एकाएक गायब होने से हलचलें मचगयि।तब जामवंत,हनुमान,सुग्रीव,अन्गद इ.वीर  परेशान हुए।पर यह कार्य रावन का मित्र मैरावन हि कर सकता है यह विभीषण जान गया।उसने यह बात वानर सेना को कहीं।उसने बताया की  मैरावन पाताल का राजा है।मायावी है।उसकी भी पाताल में पाताललन्का है।वहाँ जाने के लिए समुद्र में से निचे एक माया की बनी सुरन्ग है।इ.बातें जानने के बाद सेना में से हनुमान ही थे जो यह काम कर सकते थे।हनुमान समुद्र के अन्दर घुस गए और उन्होंने विभीषण के कहेनुसार मार्ग क्रमन किया।वे सुरन्गसे अनेक योजन निचे पाताल लोक पहुंचे।
         पाताल लन्का उन्होंने दुरसे देख ली।पर उस मायावी नगरी में प्रवेश करना कठिन था।एकमेव मुख्य द्वार से ही कोई अन्दर जा सकता था।जहां पहरेदार खड़े हुए थे।हनुमान जी ने उन्हें कुछ ही समय में खत्म किया।पर मुख्य द्वार न खोलपाए।
       तभी हनुमान जी को  हसने कि आवाज़ सुनाई दी।उनके सामने मुख्य द्वार रक्षक खड़ा हुआ।
     "मैं मुख्य द्वार रक्षक मत्स्य वल्लभ हूँ।तुम अन्दर नहीं जा सकते।"द्वार रक्षक बोल पड़ा।हनुमान जीने उसे देखा वे हैरान हुये,कि यह राक्षसी गुणों वाला नही हैं ,यह तो कोई सात्विक मनुष्य है।हनुमान जी ने अपना हठ न छोड़ा।यह देख मत्स्य वल्लभ ने अपना खड्ग हनुमान जी पर चलाने की कोशिश की।  हनुमान जी ने अपनी गदासे खड्ग के वार ताड लिए।दखते ही दोनों में युद्ध शुरू हुआ।
        उतने समय में वहां पर एक सुंदरयुवति पधारी एवं कहने लगी, "नहीं मत्स्य वल्लभ युद्ध रोक लो ।यह तुम्हारे पिता हनुमान हैं।" यह सुनकर मत्स्य वल्लभ से खड्ग छुट गया। उसने हनुमान जी को साष्टांग नमस्कार किया।परन्तु हनुमान जी बोले, " मैं ब्रह्मचर्य हूँ,मैंने कोई शादी नहीं की है,ब्रह्मचारी जीवन वाले व्यक्ति को यह बोल दोष देयक है,अपने यह शब्दों को वापस लो।मैं  समझ चुका,यह मैरावनकि मायावी तन्त्र,मन्त्र वाली पाताल नगरी है".
              हनुमान जी की बात सुनकर वह स्त्री रोने लगी।उसने कहा,"मैं दक्षिण सागर कन्या सुवर्चला हूँ ।मैं विशाल सागर मे मछली 🐟 के रूप लेकर विहार किया करती थी।तबकि बात है ,जब अापने सिंहिका के परछाईं खिचे जाने पर अापने सिंहिका का युद्ध करके वध किया।उसके कुछ क्षणों बाद अपने उन्गलियोसे पसीना निकाल कर छिडका था ,वह मैने मछली रूप में निगलने के कारणहि मुझे गर्भ रहा।यही  हमारा पुत्र मत्स्य वल्लभ है।जब मत्स्य वल्लभ का जन्म हुआ तभी से इस मैरावनने अपने तन्त्र विद्या से पाताल एवं समुद्र के जिवोको हरानकर छोडा है!"
      तभी वातावरण से आकाशवाणी हुई,"हे हनुमान सुवर्चला सत्य बोली हैं,मत्स्य वल्लभ तुम्हारा ही पुत्र हैं ,हम इस बात के साक्षी है!"
        हनुमान जी ने अपने पुत्र मत्स्य वल्लभ को सिनेसे लगाया।उसके बाद सुवर्चलाने कहाँ,"हनुमान जी,मैरावनने ही हमारा समुद्री जिवन विध्वंसक बनाया था इसी कारण हमारे पुत्र को नीतियाँ,धर्म,विद्या और युद्ध कलामे श्रेष्ठ होने के बावजूद यह द्वार रक्षा करनी पड़ी हैं।पर मुझे दिव्य दृष्टि से मालूम था,आपकी समय पर यहाँ भेंट होगी और हम समुद्र राज्य जाने के लिये मुक्त हो जाएंगे।"
       हनुमान जी ने भी,सुवर्चलासे आभार व्यक्त किये ।उन्होंने अपनी सारी कथा कही।
      तबहि सुवर्चलाने कहाँ की," ,मैरावनको उसकी तन्त्र शक्ति के कारन साधारण से कोई नहीं मार सकेगा,उसे मारने का उपाय केवल नागकन्या चन्द्रसेना ही जानती हैं।जो मैरावनके महल मे कैद है।आपको उसीसे मैरावनको मारनेका उपाय पूछना होगा! "
        इस प्रकार हनुमान जी अपनी पत्नी सुवर्चला से मिले।



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